Saturday 30 December 2017

नीम का पेड़...













नीम का पेड़
मूक-मौन खड़ा है
दशकों से
लड़ता रहा है
तपिश से
छांव के लिए
निःशब्द
सवाल करता है
इंसान से
जाति-धर्म का
विधान क्या है?
इंसानियत का
संविधान क्या है?
लोग आते हैं
सुस्ताते हैं,
चले जाते हैं
दशकों से
क्रम जारी है
जवाब के
इंतजार में
यू्ं ही खड़ा है
नीम का पेड़

Wednesday 27 December 2017

इस अंधेरी बस्ती में....
















इस अंधेरी बस्ती में,
उम्मीद की लौ जलती है|
टूटे हुए छप्पर में,
गरीबी सिसकती है|
लिहाफ के छेद में,
सपने हजार पलते हैं|
सूरज की ईष्या से,
पलभर में दरकते हैं |
दिन के उजाले में,
सन्नाटा पसर जाता है|
बस्ती की गलियों में,
भूख जो टहलती है|
अखबारों, इश्तिहारो में,
विकास की बाते हैं|
कोई तो पता दे,
कहां उसकी बस्ती है?

शहर में पसरा सन्नाटा....











शहर में पसरा सन्नाटा कुछ कह रहा है
लेकिन उनके पास वक्त नहीं
दरअसल वो देशहित चिंतक हैं
उनके अपने विचार और आदर्श हैं
वे विमर्श करेंगे वर्तमान हालात पर
प्रकाश डालेंगे कूटनीति पर
वे राष्ट्रभक्त हैं और बुद्धिजीवी भी हैं
वे सिर्फ सवाल तय करते हैं
अधिकार है उनका, देश खतरे में है
विरोध के स्वर उन्हें पसंद नहीं है
क्योंकि विरोधी वामपंथी होते हैं
दीवारों पर लाल निशान हैं
शायद देश विरोधी ताकतों ने बनाए हैं
गलियों में बिखरी चप्पलें ताक रही हैं
वो भी कुछ कह रही हैं
उन्हें पता है, दुश्मनों की हैं
उनके विमर्श का विषय तय हो चुका है|

Monday 25 December 2017

दूंगा जब आवाज मैं...











गीत या गजल बन कर दूंगा जब आवाज मैं
गुनगुना लेना तुम बन जाउंगा राग मैं
इश्क़ को सजदा करेंगे, तारे जगमगाएंगे
आशिकी की दास्तां संग तेरे गुनगुनाएंगे
चुपके चुपके चांद संग चांदनी भी आएगी
प्रीत की चुनरिया ओढ़े प्रेम गीत गाएगी

रागिनी बन जाना तुम बन जाउंगा साज मैं |
इश्क नेमत है खुदा की, पाकीज़ा एहसास है
गीत है, गजल है, ये भजन और अरदास है
पीर की मदहोशी है, ये फकीर का अंदाज है
मन परिंदा बन उड़े तो इश्क़ ही परवाज है
माशूकी में नाम तेरा दुनिया जब दोहराएगी
बादलों की ओट से चांदनी खिल जाएगी
गीत या गजल बन कर दूंगा जब आवाज मैं
गुनगुना लेना तुम बन जाउंगा राग मैं |

जल-जंगल-जमीन

जल जंगल जमीन ने कब कहा नदियों में बहेगी खून की धार जल जंगल जमीन ने कब कहा हरियाली पहनेगी खूनी हार जंगल से ...